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पर्यावरण, विधि एवं मानवाधिकार = Pariyavaran, Vidhi Avam Manavadhikar सरोज परमार = Saroj Parmar

By: Contributor(s): Material type: TextTextLanguage: Hin. Publication details: Jaipur Aavishkar Publisher, Distributer 2011Description: 253pISBN:
  • 9788179103388
Subject(s): DDC classification:
  • 344.54046 PAR
Summary: पर्यावरण आज विश्व समाज की प्रमुख साझी चिंताओं में से एक है। पृथ्वी की मानवेतर प्रजातियां प्रकृति से सामंजस्य बना कर उसकी अधीनता में रहती आई हैं। इसके विपरीत मानव ने अपनी बुद्धि के बल पर हमेशा प्रकृति को चुनौती दी है। अतीत में भी वह कई संकटों को झेलता और उनसे उबरता आया है। परंतु वर्तमान पर्यावरणीय संकट को अतीत के संकटों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता और इसके समाधान के प्रयासों का भी कोई स्वरूप पूर्वनिर्धारित नहीं किया जा सकता। विज्ञान और उसके द्वारा लाया गया विकास पर्यावरणीय समस्या का एकमात्र न सही, पर एक महत्वपूर्ण कारण है। पर्यावरण पर विचार करते हुए विकास की हमारी समझ, उसकी कीमत और प्रभावों पर विचार से बचा नहीं जा सकता। आज विकास की लोकप्रिय अवधारणा पर पुनर्विचार आवश्यक हो गया है। विकास आवश्यकताओं और तत्संबंधी प्रयासों के साथ अन्य कई कारकों पर समग्र रूप से ध्यान दिया जाना समय की मांग है। धीरे धीरे पर्यावरणीय न्याय की अवधारणा बल पकड़ती जा रही है। अब तक चली आई पारंपरिक सोचों / प्रचलनों / अनदेखियों पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। अल्पसंख्यक अधिमान्यता प्राप्त वर्ग के हितपोषण के लिए बहुसंख्यक वर्ग के हितों की उपेक्षा क्या अब तक की तरह आगे भी चलती रह पाएगी. यह प्रश्न महज समाजशास्त्रियों की रूचि का विषय नहीं रह गया है। गैर सरकारी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के सरोकारों के साथ आम जन के सरोकार भी ऐसे विषयों से जुड़ने लगे हैं। औपचारिक कानूनों, नियमों के आगे अब पाठ्यक्रमों में भी इन्हें स्थान दिया जाने लगा है ताकि नई पीढ़ी पर्यावरण चेतना से भरपूर हो और तदनुरूप अपना जीवन दाल सके व महत्वपूर्ण निर्णयों में भागीदार बन सके। तमाम सरकारी, गैरसरकारी पर्यावरणीय प्रयासों में भी जनजागरूकता की आवश्यकता को रेखांकित किया जा रहा है और इसे तमाम अभियानों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जा रहा है। इसी ध्येय में सहभागी बनने का प्रयास यह पुस्तक है।
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Books Books Rashtriya Raksha University 344.54046 PAR (Browse shelf(Opens below)) Available 2780

पर्यावरण आज विश्व समाज की प्रमुख साझी चिंताओं में से एक है। पृथ्वी की मानवेतर प्रजातियां प्रकृति से सामंजस्य बना कर उसकी अधीनता में रहती आई हैं। इसके विपरीत मानव ने अपनी बुद्धि के बल पर हमेशा प्रकृति को चुनौती दी है। अतीत में भी वह कई संकटों को झेलता और उनसे उबरता आया है। परंतु वर्तमान पर्यावरणीय संकट को अतीत के संकटों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता और इसके समाधान के प्रयासों का भी कोई स्वरूप पूर्वनिर्धारित नहीं किया जा सकता।

विज्ञान और उसके द्वारा लाया गया विकास पर्यावरणीय समस्या का एकमात्र न सही, पर एक महत्वपूर्ण कारण है। पर्यावरण पर विचार करते हुए विकास की हमारी समझ, उसकी कीमत और प्रभावों पर विचार से बचा नहीं जा सकता। आज विकास की लोकप्रिय अवधारणा पर पुनर्विचार आवश्यक हो गया है। विकास आवश्यकताओं और तत्संबंधी प्रयासों के साथ अन्य कई कारकों पर समग्र रूप से ध्यान दिया जाना समय की मांग है।

धीरे धीरे पर्यावरणीय न्याय की अवधारणा बल पकड़ती जा रही है। अब तक चली आई पारंपरिक सोचों / प्रचलनों / अनदेखियों पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। अल्पसंख्यक अधिमान्यता प्राप्त वर्ग के हितपोषण के लिए बहुसंख्यक वर्ग के हितों की उपेक्षा क्या अब तक की तरह आगे भी चलती रह पाएगी. यह प्रश्न महज समाजशास्त्रियों की रूचि का विषय नहीं रह गया है। गैर सरकारी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के सरोकारों के साथ आम जन के सरोकार भी ऐसे विषयों से जुड़ने लगे हैं। औपचारिक कानूनों, नियमों के आगे अब पाठ्यक्रमों में भी इन्हें स्थान दिया जाने लगा है ताकि नई पीढ़ी पर्यावरण चेतना से भरपूर हो और तदनुरूप अपना जीवन दाल सके व महत्वपूर्ण निर्णयों में भागीदार बन सके।

तमाम सरकारी, गैरसरकारी पर्यावरणीय प्रयासों में भी जनजागरूकता की आवश्यकता को रेखांकित किया जा रहा है और इसे तमाम अभियानों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जा रहा है। इसी ध्येय में सहभागी बनने का प्रयास यह पुस्तक है।

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