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लाल शीत युद्ध की दास्तान, भारत और पाकिस्तान = Laal Sheet Yuddh Ki Dastan, Bharat Aur Pakistan कृष्णानन्द शुक्ल = Krishannand Shukla

By: Material type: TextTextLanguage: Hindi Publication details: New Delhi Mohit Publications 2012Description: 412pISBN:
  • 9788174456380
Subject(s): DDC classification:
  • 327.5405491 SHU
Summary: पाकिस्तान को अपने विवेक से विचार करते हुए यह समझना चाहिए कि बदली हुई अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में युद्ध दोनों ही देशों के हित में नहीं है। जर्मनी एवं कोरिया जैसे देशों से भी सीखने की जरूरत है। भारत विभाजन जिस 'द्विराष्ट्र सिद्धान्त' का प्रतिपादन हुआ सम हमारी संस्कृति, परम्परा, राजनीतिक मूल्य र तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों पर करारा थप्पड़ था। 1940 में जिन्ना ने मुस्लिम ली के लाहौर अधिवेशन में 'द्विराष्ट्र सिद्धान्त' बोलते हुए कहा था कि "हिन्दू और मुसलमानो अलग-अलग राष्ट्र हैं। इन्हें एक राष्ट्र के अन्दर एक साथ रखना सम्भव नहीं है। दोनों के आदर्श अलग-अलग हैं और दोनों एक दूसरे के शत्रु । इनके भाषा, धर्म, संस्कार, आचार-विचार सभी अलग हैं। इसलिए हिन्दुओं को मुसलमानों से अलग रखना चाहिए।" बाद में यही सोच विभाजन के समय धार्मिक उन्माद और एक दूसरे के प्रति घृणा का कारण बनी। मेरी राय में पाकिस्तान के साथ बेहतर सम्बंधों की राह में दो सबसे बड़े रोड़े हैं-घृणा एवं कट्टरपंथ तथा कश्मीर की समस्या । पाकिस्तान सारी समस्याओं के साथ कश्मीर का मुद्दा भी चिपका देता है। कश्मीर समस्या के समाधान के लिए तमाम विचार एवं सुझाव सामने आये हैं, लेकिन मेरा मानना है कि कश्मीर को एक 'बफर स्टेट' के रूप में स्थापित कर देना चाहिए। इससे आर्थिक क्षेत्र एवं राष्ट्रीय विकास में काफी संसाधन भारत को अतिरिक्त मिल जायेंगे। एक अनुमान के अनुसार आर्थिक दृष्टि से देखा जाय, तो 1947 से आज तक अकेले जितना सियाचिन ग्लेशियर पर भारत ने खर्चा किया है, वह कश्मीर के कुल मूल्य से अधिक हो सकता है। यदि सम्पूर्ण कश्मीर पर हो रहे सैन्य व्यय को मिला लें, तो ये और भी अधिक हो सकता है। यदि कश्मीर किये जा रहे पुर्नवास, रक्षा, शिक्षा, रोजगार व विकास के अन्य मद बिजली, पानी आदि सभी मदों के खर्चों को मिलकार देखा जाय, तो शायद यह सकल राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता के 33 प्रतिशत के आस-पास बैठेगा। यानी कश्मीर के नाम पर हम अपने एक तिहाई राष्ट्रीय विकास की तिलांजलि दे रहे हैं और बदले में कश्मीर से हमें क्या मिल रहा है-आतंकवाद, अस्थिरता और जलालत?
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पाकिस्तान को अपने विवेक से विचार करते हुए यह समझना चाहिए कि बदली हुई अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में युद्ध दोनों ही देशों के हित में नहीं है। जर्मनी एवं कोरिया जैसे देशों से भी सीखने की जरूरत है। भारत विभाजन जिस 'द्विराष्ट्र सिद्धान्त' का प्रतिपादन हुआ सम हमारी संस्कृति, परम्परा, राजनीतिक मूल्य र तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों पर करारा थप्पड़ था। 1940 में जिन्ना ने मुस्लिम ली के लाहौर अधिवेशन में 'द्विराष्ट्र सिद्धान्त' बोलते हुए कहा था कि "हिन्दू और मुसलमानो अलग-अलग राष्ट्र हैं। इन्हें एक राष्ट्र के अन्दर एक साथ रखना सम्भव नहीं है। दोनों के आदर्श अलग-अलग हैं और दोनों एक दूसरे के शत्रु । इनके भाषा, धर्म, संस्कार, आचार-विचार सभी अलग हैं। इसलिए हिन्दुओं को मुसलमानों से अलग रखना चाहिए।" बाद में यही सोच विभाजन के समय धार्मिक उन्माद और एक दूसरे के प्रति घृणा का कारण बनी। मेरी राय में पाकिस्तान के साथ बेहतर सम्बंधों की राह में दो सबसे बड़े रोड़े हैं-घृणा एवं कट्टरपंथ तथा कश्मीर की समस्या ।

पाकिस्तान सारी समस्याओं के साथ कश्मीर का मुद्दा भी चिपका देता है। कश्मीर समस्या के समाधान के लिए तमाम विचार एवं सुझाव सामने आये हैं, लेकिन मेरा मानना है कि कश्मीर को एक 'बफर स्टेट' के रूप में स्थापित कर देना चाहिए। इससे आर्थिक क्षेत्र एवं राष्ट्रीय विकास में काफी संसाधन भारत को अतिरिक्त मिल जायेंगे। एक अनुमान के अनुसार आर्थिक दृष्टि से देखा जाय, तो 1947 से आज तक अकेले जितना सियाचिन ग्लेशियर पर भारत ने खर्चा किया है, वह कश्मीर के कुल मूल्य से अधिक हो सकता है। यदि सम्पूर्ण कश्मीर पर हो रहे सैन्य व्यय को मिला लें, तो ये और भी अधिक हो सकता है। यदि कश्मीर किये जा रहे पुर्नवास, रक्षा, शिक्षा, रोजगार व विकास के अन्य मद बिजली, पानी आदि सभी मदों के खर्चों को मिलकार देखा जाय, तो शायद यह सकल राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता के 33 प्रतिशत के आस-पास बैठेगा। यानी कश्मीर के नाम पर हम अपने एक तिहाई राष्ट्रीय विकास की तिलांजलि दे रहे हैं और बदले में कश्मीर से हमें क्या मिल रहा है-आतंकवाद, अस्थिरता और जलालत?

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